अखंड भारत: ध्येय और साधन

भारतीय जनसंघ ने अपने सम्मुख अखंड भारत का ध्येय रखा है। अखंड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं अपितु जीवन के भारतीय दृष्टिकोण का द्योतक है जो अनेकता में एकता के दर्शन करता है। अत: हमारे लिए अखंड भारत कोई राजनीतिक नारा नहीं जो परिस्थिति विशेष में जनप्रिय होने के कारण हमने स्वीकार किया हो बल्कि यह तो हमारे संपूर्ण दर्शन का मूलाधार है। 15 अगस्त, 1947 को भारत की एकता के खंडित होने के तथा जन-धन की अपार हानि होने के कारण लोगों को अखंडता के अभाव का प्रकट परिणाम देखना पड़ा और इसलिए आज भारत को पुन: एक करने की भूख प्रबल हो गई है किंतु यदि हम अपनी युग-युगों से चली आई जीवन-धारा के अंत:प्रवाह को देखने का प्रयत्न करें तो हमें पता चलेगा कि हमारी राष्ट्रीय चेतना सदेव ही अखंडता के लिए प्रयत्नशील रही है तथा इस प्रयत्न में हम बहुत कुछ सफल भी हुए हैं।

उत्तरम् यत् समुद्रस्य दक्षिणं हिमवदगिरे:
वर्ष तद्भारतं नाम भारतीय यत्न संतति:

के रूप में जब हमारे पुराणकारों ने भारतवर्ष की व्याख्या की तो वह केवल भूमिपरक ही नहीं अपितु जनपरक और संस्कृतिपरक भी था। हमने भूमि, जन और संस्कृति को कभी एक-दूसरे से भिन्न नहीं किया अपितु उनकी एकात्मता की अनुभूति के द्वारा राष्ट्र का साक्षात्कार किया। अखंड भारत इस राष्ट्रीय एकता का ही पर्याय है। एक देश, एक राष्ट्र और एक संस्कृति की जो आधारभूत मान्यताएँ जनसंघ ने स्वीकार की हैं उनका सबका समावेश अखंड भारत शब्द के अंतर्गत हो जाता है। अटक से कटक, कच्छ से कामरूप तथा कश्मीर से कन्याकुमारी तक संपूर्ण भूमि के कण-कण को पुण्य और पवित्र ही नहीं अपितु आत्मीय मानने की भावना अखंड भारत के अंदर अभिप्रेत है। इस पुण्यभूमि पर अनादि काल से जो प्रथा उत्पन्न हुई तथा आज जो है उनमें स्थान और काल के क्रम से ऊपरी चाहे जितनी भिन्नताएँ रही हों किंतु उनके संपूर्ण जीवन में मूलभूत एकता का दर्शन प्रत्येक अखंड भारत का पुजारी करता है। अत: सभी राष्ट्रवासियों के संबंध में उसके मन में आत्मीयता एवं उससे उत्पन्न पारस्परिक श्रद्धा और विश्वास का भाव रहता है। वह उनके सुख-दु:ख में सहानुभूति रखता है। इस अखंड भारत माता की कोख से उत्पन्न सपूतों ने अपने क्रिया-कलापों से विविध केंद्रों में जो निर्माण किया उसमें भी एकता का सूत्र रहता है। हमारी धर्म-नीति, अर्थ-नीति और राजनीति, हमारे साहित्य, कला और दर्शन हमारे इतिहास पुराण और आशय, हमारी स्मृतियों विधान सभी में देव पूजा के विभिन्न व्यवधानों के अनुसार बाह्य भिन्नताएँ होते हुए भी भक्त की भावना एक है। हमारी संस्कृति की एकता का दर्शन अखंड भारत के पुरस्कर्ता के लिए आवश्यक है।
संपूर्ण जीवन की एकता की अनुभूति तथा उस अनुभूति के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को दूर करने के रचनात्मक प्रयत्न का ही नाम इतिहास है। गुलामी हमारी एकत्वानुभूति में सबसे बड़ी बाधा थी। फलत: हम उसके विरुद्ध लड़े। स्वराज्य प्राप्ति उस अनुभूति में सहायक होनी चाहिए थी। वह नहीं हुआ इसीलिए हम खिन्न हैं। आज हमारे जीवन में विरोधी-भावनाओं का संघर्ष हो रहा है। हमारे राष्ट्र की प्रकृति है ‘अखंड भारत’। खंडित भारत विकृति है। आज हम विकृत आनंदानुभूति का धोखा खाना चाहते हैं। किंतु आनंद मिलता नहीं। यदि हम सत्य को स्वीकार करें तो हमारा अंत:संघर्ष दूर होकर हमारे प्रयत्नों में एकता और बल आ सकेगा।
कई लोगों के मन में शंका होती है कि अखंड भारत सिद्ध भी होगा या नहीं। उनकी शंका पराभूत मनोवृत्ति का परिणाम है। पिछली अर्धशताब्दी के इतिहास तथा हमारे प्रयत्नों की असफलता से वे इतने दब गए हैं कि अब उनमें उठने की हिम्मत ही नहीं रह गई। उन्होंने सन् 1947 में अपने एकता के प्रयत्नों की पराजय तथा पृथकतावादी नीति की विजय देखी। उनकी हिम्मत टूट गई और अब वे उस पराजय को ही स्थायी बनाना चाहते हैं। किंतु यह संभव नहीं। वे राष्ट्र की प्रकृति के प्रतिकल नहीं चल सकते। प्रतिकूल चलने का परिणाम आत्मघात होगा। गत छह वर्षों की कष्ट परंपरा का यही कारण है।
सन् 1947 की पराजय भारतीय एकतानुभूति की पराजय नहीं अपितु उन प्रयत्नों की पराजय है जो राष्ट्रीय एकता के नाम पर किए गए। हम असफल इसलिए नहीं हुए कि हमारा ध्येय गलत था बल्कि इसलिए कि मार्ग गलत चुना। सदोष साधन के कारण ध्येय सिद्धि न होने पर ध्येय न तो त्याज्य ही ठहराया जा सकता है और न अव्यवहारिक ही। आज भी अखंड भारत की व्यवहारिकता में उन्हीं को शंका उठती है जिन्होंने उन दोषयुक्त साधनों को अपनाया तथा जो आज भी उनको छोड़ना नहीं चाहते।
अखंड भारत के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा मुसलिम संप्रदाय की पृथकतावादी एवं अराष्ट्रीय मनोवृत्ति रही है। पाकिस्तान की सृष्टि उस मनोवृत्ति की विजय है। अखंड भारत के संबंध में शंकाशील यह मानकर चलते हैं कि मुसलमान अपनी नीति में परिवर्तन नहीं करेगा। यदि उनकी धारणा सत्य है तो फिर भारत में चार करोड़ मुसलमानों को बनाए रखना राष्ट्रहित के लिए बड़ा संकट होगा। क्या कोई कांग्रेसी यह कहेगा कि मुसलमानों को भारत से खदेड़ दिया जाए? यदि नहीं तो उन्हें भारतीय जीवन के साथ समरस करना होगा। यदि भौगोलिक दृष्टि से खंडित भारत में यह अनुभूति संभव है तो शेष भू-भाग को मिलते देर नहीं लगेगी। एकता की अनुभूति के अभाव में यदि देश खंडित हुआ है तो उसके भाव से वह अब अखंड होगा। हम उसीके लिए प्रयत्न करें। किंतु मुसलमानों को भारतीय बनाने के अलावा हमें अपनी तीस साल पुरानी नीति बदलनी पड़ेगी। कांग्रेस ने हिंदू मुसलिम एक्य के प्रयत्न गलत आधार पर किए। उसने राष्ट्र की और संस्कृति की सही एवं अनादि से चली आनेवाली एकता का साक्षात्कार किया तथा अनेकों को कृत्रिम तथा राजनीतिक सौदेबाजी के आधार पर एक करने का प्रयत्न किया। भाषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि सभी की कृत्रिम ढंग से रचना की। ये यत्न कभी सफल नहीं हो सकते थे। राष्ट्रीयता और अराष्ट्रीयता का समन्वय संभव नहीं।
यदि हम एकता चाहते हैं तो भारतीय राष्ट्रीयता जो हिंदू राष्ट्रीयता है तथा भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है उसका दर्शन करें। उसे मानदंड बनाकर चलें। भागीरथी की पुण्यधाराओं में सभी प्रवाहों का संगम होने दें। यमुना भी मिलेगी और अपनी सभी कालिमा खोलकर गंगा की धवल धारा में एकरूप हो जाएगी। किंतु इसके लिए भी भागीरथ के प्रयत्नों की निष्ठा एवं सद्विप्रा: बहुधा वदन्ति, की मान्यता लेकर हमने संस्कृति और राष्ट्र की एकता का अनुभव किया है। हजारों वर्षों की असफलता अधिक है। अत: हमें हिम्मत हारने की जरूरत नहीं। यदि पिछले सिपाही थके हैं तो नए आगे आएँगे। पिछलों को अपनी थकान को हिम्मत से मान लेना चाहिए, अपने कर्मों की कमजोरी स्वीकार कर लेनी चाहिए लड़ाई जीतेंगे ही नहीं यह कहना ठीक नहीं। यह हमारी आन और शान के खिलाफ है, राष्ट्र की प्रकृति और परंपरा के प्रतिकूल है।

– दीनदयाल उपाध्याय
(पांचजन्य, 24 अगस्त, 1953)