हिंदी विचार

राष्ट्रीयता का आधार - भारतमाता

हमारी राष्ट्रीयता का आधार ‘भारतमाता’ है, केवल भारत नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का एक टुकड़ा मात्र रह जाएगा। इस भूमि का और हमारा ममत्व तब आता है, जब माता वाला संबंध जुड़ता है। कोई भी भूमि तब तक देश नहीं कहला सकती, जब तक कि उसमें किसी जाति का मातृक ममत्व, यानी ऐसा ममत्व जैसा पुत्र का माता के प्रति होता है, न हो। यही देशभक्ति है, तथापि देशभक्ति का मतलब जमीन के टुकड़े के साथ प्रेम होना मात्र नहीं है। कई पशु-पक्षी भी तो अपने घर से बहुत प्रेम करते हैं – साँप अपना बिल नहीं छोड़ता, शेर मांद में ही निवास करता है, पक्षी रात में अपने घोंसले में लौट आते हैं, किंतु ये देशभक्त हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मानव भी जहाँ रहता है, वहाँ से उसका कुछ-न-कुछ लगाव हो ही जाता है, फिर भी इतने मात्र से देशभक्ति नहीं आती। उन लोगों का प्रेम ही देशभक्ति कही जाएगी, जो देश में ‘एक जन’ के नाते संबद्ध हैं। पुत्र रूप, ‘एक जन’ और माता रूप ‘भूमि’ के मिलन से ही देश की सृष्टि होती है। यही देशभक्ति है, जो अमर है।

– राष्ट्रजीवन की दिशा : दीनदयाल उपाध्याय; सं.- रामशंकर अग्निहोत्री, भानुप्रताप शुक्ल; लोकहित प्रकाशन, लखनऊ; 2008;

चिति जनसमूह के प्रत्येक व्यक्ति में मातृभूमि के प्रति परम सुख की भावना रूप में रहती है। वह सर्वोत्कृष्ट सुख जिसके समक्ष अन्य सब बातें फीकी लगें, इस चिति द्वारा स्थापित होता है। इसकी झलक व्यक्ति के सब प्रकार के कार्यों में दिखाई पड़ती है। उसके समस्त व्यापार, निःशेष चेष्टाएँ अखिल कर्म इसी चिति के प्रकाश में चैतन्य रहते हैं। जब तक ‘चिति’ जागृत और निरामय रहती है तब तक राष्ट्र का अभ्युदय होता रहता है। इसी चेतना के आधार पर राष्ट्र संगठित होता है। चिति से जागृत और एकीभूत हुई समष्टि की प्राकृतिक छात्र शक्ति अर्थात् अनिष्टों से रक्षा करनेवाली शक्ति विराट् कही जाती है।” चिति’ के प्रकाश से जागृत एक जन की संगठित कार्यशक्ति विराट् से संचालित जीवन मातृभूमि की अराधना में इहलौकिक तथा पारलौकिक सभी प्रकार के ऐश्वर्य की प्राप्ति करता हुआ विश्व में अजेय बनकर खड़ा होता है। यही राष्ट्र के संबंध में चिरंतन सत्य सिद्धांत है और इसी सत्य का प्रकटीकरण भारत में हिंदू राष्ट्र है।

– राष्ट्र जीवन की दिशाः दीनदयाल उपाध्याय; सं.- रामशंकर अग्निहोत्री, भानुप्रताप शुक्ल; लोकहित प्रकाशन, लखनऊ; 2008; पृ. 50

जैसे राष्ट्र का आधार चिति होती है, वैसे ही जिस शक्ति से राष्ट्र की धारणा होती है, उसे ‘विराट्’ कहते हैं। ‘विराट्’ राष्ट्र की वह कर्मशक्ति है जो चिति से जाग्रत् एवं संगठित होती है। विराट् का राष्ट्र जीवन में वही स्थान है जो शरीर में प्राण का है। प्राण से ही सभी इंद्रियों को शक्ति मिलती है, बुद्धि को चैतन्य प्राप्त होता है और आत्मा शरीरस्थ रहता है। राष्ट्र में भी विराट् के सबल होने पर ही उसके भिन्न-भिन्न अवयव अर्थात् संस्थाएँ सक्षम और समर्थ होती हैं। अन्यथा संस्थागत व्यवस्था केवल दिखावा मात्र रह जाती है। ‘विराट्’ के आधार पर ही प्रजातंत्र सफल होता है और राज्य बलशाली बनता है। इसी अवस्था से राष्ट्र की विविधता उसकी एकता के लिए बाधक नहीं होती। भाषा, व्यवसाय आदि भेद तो सभी जगह होते हैं। किंतु जहाँ ‘विराट्’ जाग्रत् रहता है, वहाँ संघर्ष नहीं होते हैं। सब लोग शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों की भाँति या कुटुंब के घटकों के समान परस्पर पूरकता से काम करते रहते हैं। “हमें अपने राष्ट्र के ‘विराट्’ को जाग्रत् करने का काम करना है। अपने प्राचीन के प्रति गौरव का भाव लेकर, वर्तमान का यथार्थवादी आकलन कर और भविष्य की महत्त्वाकांक्षा लेकर हम इस कार्य से जुट जाएँ। हम भारत को न तो किसी पुराने जमाने की प्रतिच्छाया बनाना चाहते हैं और न रूस या अमेरिका की तसवीर।

– एकात्म मानववाद; दीनदयाल उपाध्याय; प्रकाशक – भारतीय जनता पार्टी, नई दिल्ली; 2012;

अखंड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं अपितु जीवन के भारतीय दृष्टिकोण का द्योतक है, जो अनेकता में एकता के दर्शन करता है। अतः हमारे लिए अखंड भारत कोई राजनीतिक नारा नहीं जो परिस्थिति विशेष में जनप्रिय होने के कारण हमने स्वीकार किया हो बल्कि यह तो हमारे संपूर्ण दर्शन का मूलाधार है। राष्ट्रीय और एकात्मक संस्कृति की जो आधारभूत मान्यताएँ जन-संघ ने स्वीकार की हैं, उन सबका समावेश ‘अखंड भारत’ शब्द के अंतर्गत हो जाता है। अटक से कटक, कच्छ से कामरूप तथा कश्मीर से कन्याकुमारी तक संपूर्ण भूमि के कण-कण को पुण्य और पवित्र ही नहीं अपितु आत्मीय मानने की भावना अखंड भारत के अंदर अभिप्रेत है। इस पुण्यभूमि पर अनादि काल से जो प्रजा उत्पन्न हुई तथा आज जो है, उनमें स्थान और काल के क्रम से ऊपरी भिन्नताएँ चाहे जितनी हों, किंतु उनके संपूर्ण जीवन में मूलभूत एकता का दर्शन अखंड भारत का प्रत्येक पुजारी करता है।

– राष्ट्र-चिंतन; पं. दीनदयाल उपाध्याय; लोकहित प्रकाशन, लखनऊ; 2007, पृ. 26-27

संपूर्ण जीवन की एकता की अनुभूति तथा उस अनुभूति के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को दूर करने के रचनात्मक प्रयत्न का ही नाम इतिहास है। गुलामी हमारी एकत्वानुभूति में सबसे बड़ी बाधा थी, फलतः हम उसके विरुद्ध लड़े। स्वराज्य प्राप्ति उस अनुभूति में सहायक होनी चाहिए थी, यह नहीं हुई, इसलिए हम खिन्न हैं। आज हमारे जीवन में विरोधी भावनाओं का संघर्ष हो रहा है। हमारे राष्ट्र की प्रकृति है- ‘अखंड भारत’। खंडित विकृति है। आज हम विकृति में आनंदानुभूति का धोखा खाना चाहते हैं, किंतु आनंद मिलता नहीं। यदि हम सत्य को स्वीकार करें तो हमारा अंतः संघर्ष दूर होकर हमारे प्रयत्नों में एकता और बल आ सकेगा।

– राष्ट्र-चिंतन; पं. दीनदयाल उपाध्याय; लोकहित प्रकाशन,

जो भाषा मैं प्रयोग कर रहा हूँ, वह मेरी नहीं, मुझे किसी ने दी है। इसे मातृभाषा कहते हैं. क्योंकि सबसे पहले माँ ही भाषा सिखाती है। परंतु माँ अकेले नहीं है, समाज भी है। राष्ट्र के गौरव में ही हमारा गौरव है। परंतु आदमी जब इस सामूहिक भाव को भूलकर अलग-अलग व्यक्तिगत धरातल पर सोचता है तो उससे नुकसान होता है। जब हम सामूहिक रूप से अपना-अपना काम करके राष्ट्र की चिंता करेंगे तो सबकी व्यवस्था हो जाएगी। यह मूलभूत बात है कि हम सामूहिक रूप से विचार करें, समाज के रूप में विचार करें, व्यक्ति के नाते से नहीं। इसके विपरीत कोई भी काम किया गया तो वह समाज के लिए घातक होगा। सदैव समाज का विचार करके काम करना चाहिए।

पत्रिका उत्तर प्रदेश संदेशपं. दीनदयाल उपाध्याय विशेषांक (दीनदयाल उपाध्याय का अंतिम भाषण, स्थान-बरेली, 4 फरवरी, 1968); प्रकाशक : सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, उत्तर प्रदेश, सितंबर 1991

समाज केवल व्यक्तियों का समूह अथवा समुच्चय नहीं, अपितु एक जीवमान सावयव सत्ता है। भूमि विशेष के प्रति मातृ-भाव रखकर चलनेवाले समाज से राष्ट्र बनता है। प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक विशेष प्रकृति होती है जो ऐतिहासिक अथवा भौगोलिक कारणों का परिणाम नहीं अपितु जन्मजात है। इसे ‘चिति’ कहते हैं। राष्ट्रों का उदय व पात ‘चिति’ के अनुकूल अथवा प्रतिकूल व्यवहार पर निर्भर करता है। विभिन्न विशिष्टताओं वाले राष्ट्र परस्पर पूरक होकर मानव एकता का निर्माण कर सकते हैं। राष्ट्रों की प्रकृति मानव एकता की विरोधी नहीं, यदि कहीं उसे विरुद्ध आचरण दिखता है तो वह विकृति का द्योतक है। राष्ट्रों का विनाश कर मानव एकता उसी प्रकार असंभव तथा अवांछनीय है जिस प्रकार व्यक्तियों को नष्ट कर समष्टि का अस्तित्व या विकास।

– पं. दीनदयाल उपाध्याय : विचार दर्शन, खंड-7: व्यक्ति-दर्शन; विश्वनाथ नारायण देवधर; सुरुचि प्रकाशन, नई दिल्ली; 2014

राष्ट्र का वास्तविक स्वरूप समझने के लिए उस मूल तत्त्व की ठीक-ठीक पहचान करनी होगी, जिसके आविर्भाव से राष्ट्र का उदय होता है, जिसके कारण राष्ट्र की धारणा होती है और जिसके क्षीण पड़ने से राष्ट्र विनाश की ओर अग्रसर हो जाता है। यह मूल तत्त्व है- राष्ट्र की प्रकृति जिसे शास्त्रीय ढंग से ‘चिति’ नाम से संबोधित किया गया है। चिति वह मानदंड है जिससे हर वस्तु को मान्य अथवा अमान्य किया जाता है।

– राष्ट्र जीवन की दिशा : दीनदयाल उपाध्याय; सं. – रामशंकर अग्निहोत्री